महाराणा प्रताप की जीवनी (Maharana Pratap) ~ Ancient India

महाराणा प्रताप की जीवनी (Maharana Pratap)

महाराणा प्रताप


जन्म : 09 मई,1540

मृत्यु : 19 जनवरी,1597

जन्म स्थान : कुम्भलगढ़ दुर्ग , मेवाड़ (राजस्थान) / Kumbhalgarh Fort , Mewar (Rajasthan)

मृत्यु स्थल : चावंड,सरादा / सराड़ा तहसील (उदयपुर)




पिता : महाराणा उदय सिंह

माता : रानी जयवंताबाई

पत्नी : महारानी अजबदे पुनवार (13 अन्य)

पुत्र : राजकुमार अमर सिंह (16 अन्य)

पुत्रियां : 5




धर्म : हिन्दू

शासनकाल : 1568 ई.-1597 ई. (लगभग 29 वर्ष)

शासन क्षेत्र : मेवाड़

राजधानी : कुम्भलगढ़ ,उदयपुर (Kumbhalgarh , Udaipur)

राजघराना : राजपूताना

राजवंश : सिसोदिया

पूर्वाधिकारी : महाराणा उदय सिंह (पिता)

उत्तराधिकारी : राणा अमर सिंह (पुत्र)

महत्वपूर्ण युद्ध : हल्दीघाटी का युद्ध



राजस्थान की धरती वीरों की धरती है । यहां अनेकों वीरों ने जन्म लिया जिन्होंने अपने प्रताप से ना केवल अपने वंश का नाम रोशन किया अपितु भारत के इतिहास में भी एक अमिट छाप छोड़ गए । ऐसे ही एक वीर व प्रतापी राजा हुए महाराणा प्रताप । जिन्होंने अपने राजसी वैभव को त्यागकर जीवनभर कष्टों को सहन करते हुए गुलामी के विरुद्ध संघर्ष किया ।


महाराणा प्रताप की जीवनी

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. को कुंभलगढ़ के दुर्ग में हुआ था । महाराणा प्रताप के पिता राणा उदय सिंह मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के राजा थे । उनकी माता का नाम जयवंता कंवर था जो पाली के शासक अखेराज सोनगरा चौहान की बेटी थी । महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था । महाराणा प्रताप बचपन से ही स्वाभिमानी व स्वतंत्रताप्रिय थे । 28 फरवरी,1572 ई. को गोगुन्दा (Gogunda) में उनका राज्यभिषेक किया गया । महाराणा उदय सिंह ने अपनी छोटी रानी के प्रेम प्रभाव में आकर जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । लेकिन मेवाड़ की जनता व राजपूत सरदारों के विरोध के कारण जगमाल को शिघ्र ही गद्दी छोड़नी पड़ी । जगमाल महाराणा प्रताप का शत्रु बन गया तथा अकबर की शरण में चला गया ।

उस समय दिल्ली पर मुगल शासक अकबर का शासन था । राणा उदय सिंह के समय ही अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चितौड़गढ़ पर अधिकार कर लिया था । अतः उदय सिंह को चितौड़ छोड़कर अपने परिवार सहित उदयपुर आना पड़ा । अकबर से घबराकर कई राजपुताना राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी । महाराणा प्रताप का दूसरा व विधिवत राज्यभिषेक कुंभलगढ़ (Kumbhalgarh Fort) में हुआ ।

महाराणा प्रताप को छोड़कर सभी छोटे-बड़े राज्यों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी । लेकिन अकबर की तृष्णा अभी शांत नहीं हुई थी । उसकी इच्छा थी कि महाराणा प्रताप या तो उसकी अधीनता स्वीकार करे या फिर चितौड़ की तरह वह कुम्भलगढ़ (Kumbhalgarh)गोगुन्दा (उदयपुर) को भी खोने के लिए तैयार हो जाये । अकबर ने पहले कूटनीतिक तरीके से बारी-बारी से अपने मंत्रियों को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए महाराणा प्रताप को मनाने भेजा । उसने सबसे पहले जलाज खाँ कोरची फिर भगवंत दास, मान सिंहटोडरमल को भेजा । लेकिन प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया । अंततः इस कश्मोकश का नतीजा हल्दीघाटी युद्ध (Haldighati war) के रूप में निकला ।

महाराणा प्रताप के युद्ध

हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध था । हल्दीघाटी उदयपुर से 40 किलोमीटर दूर राजसमंद जिले की अरावली पर्वतमाला में खमनोर एवं बलीचा गांव के बीच एक पहाड़ी दर्रा है । यहां की मिट्टी में हल्दी के समान पीलापन होने के कारण इसे हल्दीघाटी के नाम से जाना जाने लगा ।

हल्दीघाटी का युद्ध / Haldighati war

18 जून 1576 ई. को अकबरमहाराणा प्रताप की सेनाओं के मध्य युद्ध प्रारम्भ हुआ । मुगल सेना का नेतृत्व राजा मान सिंह प्रथम तथा आसफ खाँ ने किया । महाराणा प्रताप की सेना में मुख्य रूप से भील जाती के लोग थे । मान सिंह के पास 10000 से 15000 सैनिक थे जबकि महाराणा प्रताप की सेना में मात्र 5000 सैनिक थे । प्रताप की सेना ने बड़ी वीरतापूर्वक मुगल सेना का मुकाबला किया । इस युद्ध में मान सिंह महाराणा प्रताप के भाले के वार से बाल-बाल बचा। महाराणा प्रताप स्वयं घायल हो गए थे । उन्हें घायलावस्था में युद्ध क्षेत्र से बाहर लाया गया । लगभग चार घंटे चला यह भयंकर घमासान बेनतीजन रहा । हालांकि मुगल सेना ने कुम्भलगढ़गोगुन्दा (Gogunda) पर अधिकार तो कर लिया लेकिन अकबर की महाराणा प्रताप को अधीन करने की इच्छा अधूरी रह गई ।

चेतक / Chetak

इस युद्ध में प्रताप के घोड़े चेतक (Chetak) ने भी अदम्य साहस दिखाया । घायलावस्था में जब महाराणा प्रताप युद्ध क्षेत्र से भागे थे तो मुगल सेना ने उनका पीछा किया । प्रताप की जान बचाने के लिए चेतक ने 26 फुट लंबे नाले को फांद कर पार किया । स्वामिभक्त चेतक ने महाराणा प्रताप की जान तो बचा ली लेकिन वह खुद घायल हो गया तथा अपने प्राण त्याग दिये । आज भी चेतक की समाधि हल्दीघाटी के पास बलीचा में बनी हुई है ।

महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात अपनी पत्नी व बच्चों के साथ पहाड़ों व जंगलों में भटकते रहे । वे झोंपड़ियों में रहे तथा घास-फूस से बनी रोटी खाकर जीवन व्यतीत किया । अनेकों कष्टों को सहने के बावजूद भी उन्होंने कभी अकबर की गुलामी स्वीकार नहीं की । हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात भी दोनों के मध्य संघर्ष जारी रहा ।

दिवेर का युद्ध

महाराणा प्रताप व मुगलों के मध्य अक्टूबर 1582 ई. में दिवेर का युद्ध हुआ । इस युद्ध के लिए भामाशाह व उनके भाई ने महाराणा प्रताप को धन उपलब्ध कराया । दिवेर के युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व सुल्तान खां ने किया । यह युद्ध हल्दीघाटी के युद्ध से भी कहीं भयंकर था । राजपूती सेना ने अदम्य शौर्य व साहस दिखाया । महाराणा प्रताप ने मुगल सैनिक बहलोल खान के सिर पर इतनी ताकत से वार किया कि उसके घोड़े सहित दो टुकड़े हो गए । यह सब देख मुगल सैना के हौंसले पस्त हो गए ।

मुगल सेना में भगदड़ मच खड़े गई । भागती हुई मुगल सेना का प्रताप की सेना ने अजमेर तक खदेड़ दिया । महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ (Kumbhalgarh), गोगुन्दा (Gogunda), बस्सी, चावंड, जावर, मदारिया, मांडलगढ़मोहि आदि क्षेत्रों को पुनः प्राप्त कर लिया । महाराणा प्रताप ने अपने खोये हुए इन प्रदेशों को पुनः प्राप्त तो कर लिया लेकिन उनकी मातृभूमि चितौड़ अभी भी मुगलों के कब्जे में थी ।

दिवेर युद्ध के पश्चात भी महाराणा प्रताप अपनी मातृभूमि चितौड़ की आजादी के लिये अगले 14 वर्षों तक निरंतर संघर्ष करते रहे । महाराणा का चितौड़ की आजादी का सपना अधूरा रह गया । अंततः चावंड में शिकार के दौरान धनुष की डोरी खींचते वक्त आँत में चोट लगने के कारण 19 जनवरी, 1597 ई. को उनकी मृत्यु हो गई । लाहौर में बैठे अकबर को जब महाराणा प्रताप की मौत की सूचना मिली तो वह भी अपने आंसू रोक नहीं पाया ।

महान थे महाराणा प्रताप जिन्होंने अपने स्वाभिमान के लिए अपना सारा जीवन राजसी ऐशोआराम को त्यागकर जंगलों व पहाड़ों में बिता दिया, झोंपड़ियों में रहे ,मखमल की चादर की बजाय कटी-फटी चादर ओढ़ी । जिन्होंने राजमहल के व्यंजनों का त्यागकर , कंद-मूल, खास-फूस की रोटी खाई तथा पत्तलों पर भोजन किया । महाराणा प्रताप चाहते तो अन्य राजपूत राजाओं की तरह अकबर की अधीनता स्वीकार करके ऐशोआराम से अपना जीवन जी सकते थे । लेकिन स्वतंत्रता प्रेमी, स्वाभिमानी महाराणा प्रताप उन सब राजपूतों से अलग थे । उनके इन्हीं गुणों के कारण मरु की धरा पर आज भी उनकी गौरव गाथाएं गाई जाती हैं ।

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